उठ जाग मुसाफिर भोर भई | Geet uth jaag musafir
उठ जाग मुसाफिर भोर भई
( Uth jaag musafir bhor bhai )
चार दिन की चांदनी है, दो दिन का मेला है।
झूठी जग की माया है, झुठा हर झमेला है।
मन की आंखें खोल प्राणी, मत पाल तमन्नायें नई।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
खाली हाथ आया जग में, खाली हाथ जाना है।
काहे का झगड़ा भाई, सब छूट यहीं जाना है।
जिंदगी एक सराय प्यारे, एक मुसाफिर खाना है।
दो दिनों का डेरा यहां, फिर आगे भी जाना है।
दो पल की जिंदगानी, पुण्य कर्म कर ले तू सही।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
जिस माटी में जन्म लिया, उस मिट्टी में मिल जाना है।
काहे करे अभिमान बंदे, चंद सांसों का ठिकाना है।
पल का नहीं भरोसा बन्दे, विश्वास कैसे हो रात का।
कोई ना संगी साथी जग में, इंतजार कर प्रभात का।
लुटाता जा प्रेम के मोती, भर लें अब उड़ानें नई।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
नीति अनीति पाप धर्म, सारे कर्मों का लेखा है।
ऊपरवाले ने दृष्टा बन, सारे कर्मों को देखा है।
अब भी समय संभलने का, आत्मा की आवाज सुन।
भवसागर गर पार करना, ताना बाना भलाई का बुन।
दुनिया एक भुलावा प्यारे, सोच समझ चुन राह सही।
उठ जाग मुसाफिर भोर भई,
उठ जाग मुसाफिर भोर भई।
रचनाकार : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )