गूंगी शामें | Goongi shaamen | Kavita
गूंगी शामें
( Goongi shaamen )
जाने कैसा आलम छाया खामोशी घर घर छाई है
मोबाइल में मस्त सभी अब कहां प्रीत पुरवाई है
गूंगी शामें सन्नाटा लेकर करती निशा का इंतजार
फुर्सत नहीं लोगों को घर में कर लें सुलह विचार
अब कहां महफिले सजती रंगीन शामें रही कहां
संगीत सुरों के साज बजे मधुर ताने बजी कहां
सब अपनी-अपनी ढपली ले अपना राग सुनते हैं
अपने मतलब की बातें अपना ही दाव चलाते हैं
बरगद तले वो चौपालें सब गांव के लोग आते थे
दुख दर्द बांटते आपस में शाम तलक बतियाते थे
तीज त्योहार दिवाली घर आंगन सारे सज जाते
घर घर बंटती खूब मिठाई चेहरे सबके हरसाते
हर्ष प्रेम खुशियां गायब सब सन्नाटो में जीते हैं
धन के पीछे भाग रहे नीर कई घाटो का पीते हैं
दिन भर की भाग दौड़ से थक शामें गूंगी हो जाती
महंगाई ने कमर तोड दी चेहरों पे हंसी कैसे आती
कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )