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गुमान | Gumnaam

गुमान

( Gumnam )

 

रखिए ना गुमान किसी की मित्रता पर
एक प्रतिशत ही होंगे खड़े जरूरत पर
लेखक हो या शिक्षक
करते हैं नमन केवल दरश पर

अजीब सा बन गया है ढांचा समाज का
मतलब से ही व्यवहार है आज का
हमदर्दी के बोल ही रहते है अधर पर
वक्त पर निकलता है सर टूटे साज का

बातों में तो जमाना ही बदल गया है
दोष देना ही दस्तूर बन गया है
पता नहीं स्वयं के जबान और वक्त का
सिर्फ अपने लिए हीनजरिया बदल गया है

मिलेगा सहयोग भी किसी का भला कैसे
जब खुद की सोच ही सहयोगी नहीं
आते हैं जरूर काम रिश्ते भी समय पर
लेकिन तब नहीं जब आप उपयोगी नहीं

समझाने से बेहतर है समझ रखना
और के ज़मीर की भी कदर रखना
स्वाभिमान केवल आपका ही जिंदा रहे
यह भी अजीब सी है चाहत रखना

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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