हमको नसीब अपना यहाँ ग़मज़दा मिला
हमको नसीब अपना यहाँ ग़मज़दा मिला
हमको नसीब अपना यहाँ ग़मज़दा मिला
हर रोज़ इक नया ही हमें मसअला मिला
उल्फ़त कहाँ थी अपनों से तेग़-ए-जफ़ा मिला
चाहत बहुत थी यार न हर्फ़-ए-दुआ मिला
नालायकों को जब किया घर से है बेदखल
अपना ही ख़ून हमको ये फिर चीख़ता मिला
बूढ़े शजर को छोड़ के सब लोग चल दिए
उसको वफ़ा का अपनी तो ऐसा सिला मिला
नूरे-सहर कभी भी न शामे अवध मिली
जब जागे नींद से हमें सब कुछ लुटा मिला
बस दिल जला के मेरा तो महबूब चल दिये
मेरी हथेलियों को न रंग -ए-हिना मिला
ख़्वाहिश बहुत थी एक ग़ज़ल कहते अब यहाँ
लेकिन हमें न उम्दा कोई क़ाफ़िया मिला
ग़ुरबत में कोई आके कहाँ पूछता है अब
जलता दिया वफ़ा का भी हमको बुझा मिला
मुश्किल है मुस्तफ़ा मिले मीना तो अब यहाँ
खोजा तमाम पर न कोई नक़्श -ए-पा मिला
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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