Ishq ka Karz
Ishq ka Karz

इश्क़ का कर्जा !

( Ishq ka karz ) 

 

अपनी लौ से तपाए ये कम तो नहीं,
आए गाहे – बगाहे ये कम तो नहीं।
सुर्ख होंठों से मिलता रहे वो सुकूँ,
दूर से ही पिलाए ये कम तो नहीं।

मेरे तलवों से कितने बहे हैं लहू,
आ के मरहम लगाए ये कम तो नहीं।
नहीं करती तिजारत खुशबू की वो,
साँस मेरी गमकाए ये कम तो नहीं।

खाक होने से मुझको बचाई है वो,
मेरे आँसू सुखाए ये कम तो नहीं।
अपने जल्वों से देखो सजाई मुझे,
प्यास मेरी बुझाए ये कम तो नहीं।

लगे इल्जाम कितने फिकर ही नहीं,
उजड़े दिल को बसाए ये कम तो नहीं।
कागजी चाँद से काम चलता नहीं,
चाँदनी बनके छाए ये कम तो नहीं।

कैसे उतरेगा इश्क़ का कर्जा मेरा,
ऐब मेरा छुपाए ये कम तो नहीं।
कितनी दुनिया खफ़ा है मेरे प्यार से,
दूटके जो वो चाहे ये कम तो नहीं।

 

रामकेश एम.यादव (रायल्टी प्राप्त कवि व लेखक),

मुंबई

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