इश्क-ओ-हुस्न
इश्क-ओ-हुस्न
इश्क-ओ-हुस्न भला क्या है ये आज तक न कोई समझा सनम,
जमाना करता इश्क की ख़िलाफत और खुद ही इश्क करता सनम,
वो जिन्हें मिलता इश्क सच्चा यार का वो हुलारे जन्नत के लिया करते हैं,
न हो नसीब जिसे यार का दीदार वो शब-ए-हिज्रा में आहें भरता सनम,
मिलती जब आँखो से आँखे मयखाने सा सुरूर छा जाया करता है,
देखो जो आँखे आशिक की उनमें बस एक ही सूरत का अक्स दिखता सनम,
हर धड़कन की है मैंने यार के नाम, दिल धड़कता है तो बस उसी के लिए,
इस कदर समाया है मुझमें वो नस-नस में बनकर लहू बहा करता सनम,
ता-उम्र तेरे दीदार को तड़पती रही ‘प्रेम’ हर चौखट पर सजदे किए तुझे पाने को,
मर्ग से पहले एक बार आ जाओ इस कदर तड़पाना अच्छा नहीं सनम।
प्रेम बजाज © ®
जगाधरी ( यमुनानगर )
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