जज्बातों की आंधी
जज्बातों की आंधी
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जब चलती है
वेदी पर उसके
बहुत कुछ जल जाती है।
वेग उसकी होती अथाह,
पल में सब-कुछ कर देती तबाह।
रौंद डालती सब-कुछ,
विशाल और क्षुद्र।
दिखता न उसको-
सही और ग़लत,
मिले जो कुछ पथ में-
उठाकर देती है पटक!
शांत वेग जब होता,
सामने कुछ न होता।
बिखरे पड़े सब मिलते हैं,
राख हुए रहते हैं।
क्या रिश्ते क्या नाते?
बचे कुछ न रह जाते।
आज खड़ा है-
तन्हा उदास,
दिख रहा है बदहवास।
छाई है उदासी,
ढ़ूढ़ रहीं हैं अपनों को-
नज़रें प्यासी!
लेकिन
बूंद भर नहीं है बची,
बची हैं तो सिर्फ बेबसी ही बेबसी!