एक आस अब भी | Kahani Ek Aas Ab Bhi
सुदेश जी का अपना बसा बसाया कारोबार हो चुका है जिंदगी एक प्रकार से सेटल हो गई इसके लिए उन्होंने बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ी। जिंदगी के चार दशक कैसे बीत गए पता ही नहीं चला। अपने व्यवसाय को ऊंचाइयों तक ले जाने के लिए उन्होंने दिन को दिन नहीं समझा और रात को रात। बस लग रहे काम में।
इस बीच उन्होंने जो खोया हुआ था परिवार का सुख। उनकी उम्र के बच्चों के भी बच्चे हो गए लेकिन वह अभी अपने बच्चों के लिए तरस रहे हैं।
ऐसा नहीं है उनके लिए रिश्ते नहीं आए। रिश्ते तो बहुत से आए लेकिन कभी लड़की वालों की तरफ से तो कभी उनकी तरफ से बात नहीं बन पाए और रिश्ता पक्का नहीं हो सका। ऐसे में जिंदगी के कैसे चार दशक पूरे हो गए पता ही नहीं चला । अब वह चाहे भी तो उम्र एक बहुत बड़ी बाधा बनकर आ खड़ी होती है।
भारतीय हिंदू समाज की यह एक बहुत बड़ी विडंबना है कि यहां लड़कों की जिंदगी सेटल होने के चक्कर में कैसे जवानी बीत जाती है पता ही नहीं चलता। ऊपर से मानसिक दबाव आदि के कारण उनकी औसत आयु ऐसे ही कम होती जा रही है । यह समस्या लड़कियों के साथ भी उतनी ही है जितना के लड़कों के साथ।
अधिकांश लड़की वालों को लड़का सरकारी नौकरी वाला चाहिए। इसके लिए चाहे उन्हें घर बेचकर दहेज देना पड़े। उन्हें मंजूर है इसके चक्कर में भी लड़कियों की उम्र कब 30- 35 की हो जाती है पता ही नहीं चलता।
अतीत के झरोखे में झाकते हुए सुदेश सोचता है कि कैसे इलाहाबाद में जब वह पढ़ाई कर रहा था तो कैसे-कैसे वह सपना देखा करता था । वह जब बीए कर रहा था तो उस समय वह बड़ा हैंडसम था। लंबाई थोड़ी कम थी पर शारीरिक डील डौल ऐसी थी की लड़कियां उस पर जान छिड़कती थी।
अल्हड़ जवानी का प्रेम ही वास्तविक प्रेम होता है। शादी तो लोग धन दौलत एवं रुतबा देखकर करते हैं। उसमें प्रेम का कोई महत्व नहीं होता। बस पति पत्नी बनकर लोग जीवन भर एक दूसरे को ढोते हैं । ऐसे में कभी-कभी शादीशुदा जिंदगी नरक बनकर रह जाती है।
उन दिनों को याद करते हुए सुदेश रोमांटिक सा हो जाता है। कैसे वह रोज नहीं नहीं शर्टे बदल कर आया करता । उसे याद नहीं कभी वह बिना प्रेस किए कपड़ा पहने स्कूल गया हो। उसकी परिस्थिति ऐसी नहीं थी कि वह दोस्तों संग ज्यादा पार्टी बाजी कर सके। परंतु फिर भी जो कुछ था उसी को वह बहुत सलिके के साथ रहता था।
बचपन में ही उसके पिता का साया सर से उठ चुका था । उसका छोटा भाई तो अभी मां की गोद में ही था । पिता का प्यार क्या होता है उसे नहीं पता था। अब मां ही पिता के सारे कर्तव्य का निर्वाह किया करती। अक्सर देखा गया है कि यदि किसी के पिता ना रहने पर मां बच्चों का पालन पोषण कर लेती है।
हो सकता हैं कि पिता की तरह महगी वस्तुएं न ला सके परंतु कोई मां अपने बच्चों को भूखा सुला दे ऐसा होना असंभव है।
सुदेश की मां बहुत ही मेहनती स्त्री थी। जब उन्होंने देखा कि अब शांत बैठे रहने से काम नहीं चलेगा तो पिता की तरह उन्होंने कमान संभालने का फैसला किया।
सुदेश सोचता मां ने हम सब भाइयों को अपने खून पसीने से इस प्रकार मेहनत मजदूरी कर के ना खिलाया पढ़ाया होता तो वह आज इस योग्य न बन पाए होते। माता-पिता के संस्कारों का प्रभाव बच्चों में पड़े बिना नहीं रह पाता है। सुदेश भी संस्कारी निकला। उसने कभी मांस मछली अंडे आदि का सेवन नहीं किया। शराब नहीं पिया।
उसका एक कारण यह भी था कि उसकी मां जय गुरुदेव बाबा से नाम दान दीक्षा ली हुई थी। जिसके कारण वह भी कभी मांसाहार नहीं किया। जिसके कारण बच्चे भी मांसाहार करने से बच्चे बच गए।
संतों के सत्संग का प्रभाव जनता में अवश्य पड़ता है। जय गुरुदेव बाबा का लोगों को शाकाहार की ओर प्रेरित करना बहुत बड़ा कार्य है । अधिकांश जय गुरुदेव के भक्तगण शाकाहार होते हैं । यदि पूर्व काल में मांसाहार करते भी रहे हैं तो नाम दान प्रक्रिया के बाद वह मांसाहार छोड़ देते हैं।
सुदेश ने भी मां के कहने पर बाबा जी से नाम दान दीक्षा ले लिया था। वह फिर नियमित रूप से नाम जप के बाद ही भोजन करता । कितनी ही जल्दी हो वह नाम जप करना नहीं छोड़ता था।
किसी भी बच्चों में बचपन से पड़ा हुआ संस्कार उसे आजीवन प्रभावित करता है। सुदेश के नाम दीक्षा के संस्कारों के कारण वह जवानी में भी कभी मांसाहार शराब आदि से बचा रहा। उसके जीवन में कई बार ऐसे क्षण आएं जब उसे लगा कि अपने संकल्प को तोड़ देना चाहिए। लेकिन उसने दीक्षा के समय बाबा जी से किए गए वादे को याद करके कभी भी अपने संकल्प को तोड़ा नहीं।
बीए करने के बाद उसने पत्रकारिता का मार्ग चुना । उसने पत्रकारिता में डिप्लोमा की । और सहारा समय में पत्रकार भी बन गया। इस बीच वह 25- 26 वर्ष का बांका जवान हो चुका था। उसकी शरीर बहुत गठीला था। खाने-पीने एवं कसरत योग अभ्यास का बहुत ध्यान रखता था। कहते हैं जो शरीर से प्यार करता है शरीर उससे प्यार करता है।
शरीर के देखभाल के ही कारण उम्र के चौथे दशक में आधुनिक बीमारियों से आज भी कोशो दूर है। उसने शाकाहार एवं योग अभ्यास के प्रभाव से अपनी उम्र को झुठला दिया।
इंटर करने के बाद वह शहर में आ गया था। पारिवारिक स्थिति तो ऐसी नहीं थी कि वह पढ़ाई शहर में रहकर कर सके। लेकिन उसके मामा जी शहर में ही अपने लड़कों के साथ रहते थे। उन्होंने सुदेश की पढ़ाई के प्रति लगन को देखकर अपने पास बुला लिया था। उनके भी तीन लड़के थे ।
सुदेश भी उनके साथ ही रहकर पढ़ाई करने लगा। सुदेश के मामा जी बहुत ही नेक दिल इंसान थे । वैसे वह कानूनगो पद पर थे । लेकिन घूसखोरी भ्रष्टाचार से कोसों दूर थे। उनकी इच्छा थी कि जो कुछ भी कमाई हो रही थी उसी से बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला दे। उनका गांव में पैतृक जमीन भी खूब थी। लेकिन में बच्चों की अच्छी शिक्षा दिला सके इसलिए बच्चों के साथ शहर में ही रहते थे।
समय का पहिया अपने गति से बढ़ता जा रहा था । सहारा समय में 8-10 वर्षों तक काम करते हुए धीरे-धीरे उसकी उम्र 35 36 वर्ष हो गए । उसकी मां की इच्छा थी कि उसके भी हाथ पीले हो जाए । इसी बीच उसके छोटे भाई की अच्छा रिश्ता मिलने से शादी हो चुकी थी।
अक्सर उसकी मां कहती-” बेटवा! हमरे आंखों के सामने ब्याह कर लेते जिससे हमहू शांति से मरि सकित । छोटका का दुल्हन आई गईल बा। आंखी से देखा नहीं जात बा कि बड़का बिन ब्याह रहि जाए ।चलो कोई बात नहीं अब तो कर लो।”
उसकी मां की तबीयत अक्सर खराब रहने लगी थी।
उन्हें स्वांस रोग हो गया । खांसी उन्हें बहुत परेशान करती थी। खाने-पीने में परहेज , दवाई और नियमित नाम जप के कारण नियंत्रण बना रहा । लेकिन रोग जड़ से खत्म नहीं हो रहा था।
वह मां को दिलासा दिलाता- ” ऐसे कैसे करीले , केहूं के बहन बेटियां का घास मूली हैं जो खरीद ले। अरे जब होना होगा हों जाएगा। तुम चिंता ना ही करो मां।”
“अरे कैसी नहीं करें! हमारे जीयरे पर का बीतत है यह हम ही जानत है । हर मां बाप का फर्ज है कि वह अपने लड़कों की शादी अपने आंखों के सामने हो देखत चाहत हैं । तेरे बाप के मरे धीरे-धीरे 30 साल बीत गए । यदि वो जिंदा होते तो क्या तुझे ऐसे कुंवारा रहते देख सकते थे। तेरा जरूर कहीं ना कहीं लगन करा देते । तू ना मानता फिर भी करा देते “_उसकी मां ने उसे समझाना चाहा ।
कहते हैं कि पांचो उंगलियां बराबर नहीं होती । शादी विवाह में भी लड़के या लड़कियों में कुछ ना कुछ कमी होती ही है। बुद्धिमान वह है जो थोड़ी कमियों को नजर अंदाज करते हुए शादी विवाह समय से कर ले।
आजकल शादी विवाह में देर इसलिए भी हो रही है की लड़की वालों के भी नखरे बढ़ने लगे हैं। कई बार सुदेश के रिश्ते इसलिए भी टूट गए कि उसकी सरकारी नौकरी नहीं है या फिर शहर में उसका घर नहीं है।
इसी बीच मां की तबीयत भी खराब रहने लगी। उसकी मां ने सोचा कि कुछ तीरथ व्रत भी कर लिया जाए। भारतीय हिंदू समाज में चार धाम यात्रा करना बड़ा पुण्य कर्म समझा जाता है। मां की तबीयत साथ नहीं दे रही थीं । फिर भी उन्होंने चार धाम यात्रा के लिए निकल पड़ी लेकिन इसी बीच रास्ते में ही वज्रपात जैसा हो गया । उनकी तबीयत बिगड़ी और रामेश्वरम में उनके प्राण पखेरू उड़ चले।
सुदेश के जीवन में जैसे बज्र पात हो गया हो। मां के न रहने से एक आस जो बची थी वह भी जाती रही । आखिर उसकी मां उसकी दुल्हनिया देखे बिना ईश्वर के धाम सिधार गई।
सुदेश का मन एक बार शादी विवाह से उचट गया। वह अपना संपूर्ण मन बिजनेस में लगाने लगा। अब तक तो वह नौकरी करता था । उसकी मेहनत रंग लाने लगी। उसका अपना बिजनेस स्थापित करने में 8 10 वर्ष लग गए। जिसके कारण वह उम्र के चौथे दशक कब पार कर गया पता ही नहीं चला।
आज उसका अपना स्थापित बिजनेस है । लेकिन कोई कमी है तो बस यही की रात्रि में थककर जब घर आए तो कोई यह पूछ सके की आज आप बहुत थक गए हैं बैठिए मैं चाय बनाकर लाती हूं फिर थोड़ा सा तेल सिर पर लगा देती हूं।
जिंदगी में अक्सर हम अपना बिजनेस स्थापित करने के चक्कर में कब उम्र निकल जाती है पता ही नहीं चलता। फिर धन दौलत तो मिल जाता है लेकिन परिवार का सुख छूट जाता है।
सुदेश को एक आशा अब भी है कि काश कोई अपना होता जो हमारे सुख-दुख में सहयोगी होता। आखिर रात दिन एक करके या जो बिजनेस स्थापित किया है किस काम का है हमारे।
योगाचार्य धर्मचंद्र जी
नरई फूलपुर ( प्रयागराज )