Agnisuta par Kavita | अग्निसुता
अग्निसुता
( Agnisuta )
द्रौपदी ने खोले थे केशु, जटा अब ना बांधूंगी।
जटा पर दुःशासन का रक्त, भीगों लू तब बाधूंगी।
मेरे प्रतिशोध की ज्वाला से,जल करके नही बचेगे,
मै कौरव कुल का नाश करूगी, केशु तभी बाधूंगी।
धरा पर नारी को कब तक सहना,अपमान बताओं।
पुरूष की भरी सभा मे,द्रोपदी की तुम लाज बचाओ।
बचाओ हे केशव अब, सहन मेरा क्षीर्ण होने को है,
यज्ञ सें निकली अग्निसुता, जलती है मान बताओ।
सिया का हरण हुआ था,तब जब वो थी निरा अकेली।
पाँच पतियों की भार्या, बीच सभा में नग्न अकेली।
केशु को खींच दुःशासन, जांघ ठोकता दुर्योधन है,
कौरव कुल का नाश करेगी, द्रौपदी सिर्फ अकेली।
सभ्यता खत्म हो गयी, युद्ध महाभारत का होकर।
खत्म हो द्वापर कलयुग का,परचम है आज यहां पर।
कल्कि का उदय हुआ ना,अब भी वक्त यहां काफी है,
वस्त्र पर चर्चा है द्रौपदी कृष्ण और दुःशासन पर।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )
यह भी पढ़ें : –