आवाज मन की | Kavita Awaz Man Ki
आवाज मन की
( Awaz Man Ki )
ताना-बाना दिमाग का मन से,
छुआ-छूत जाति-धर्म मन से ।
मिटाते भूख नजर पट्टी बांध-,
बाद नहाते तृप्त हो तन से।
क्या गजब खेल मन का भईया ,
दुश्मन भी कुछ पल का सईया।
उद्घाटित उद्वेलित उन्नत उन्नाव -,
उद्विग्न हो नियम की मरोड़ता कलईया।
फिर दलित सवर्ण हो जाते समान,
हवस मिटा करते भी हैं बदनाम ।
धर्म कहाँ गुम हो जाता उस क्षण-,
बर्बाद कर जिन्दगी बनते महान।
आदिकाल से ऐसा होता आ रहा,
मजबूर माँ-बाप रोता रह जा रहा।
आखिर कब ये सिलसिला रुकेगा ,
मामला दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा।
कौन सा अब कानून बनाया जाए,
बलात्कार पर अंकुश लगाया जाए।
मन की तृप्ति सम्भव जान पड़ती,
तन की अतृप्ति रोज सुनामी लाए।
आवाज मन की है उद्गार कौन करे,
तड़प मन की है भाव कौन पढ़े ,
अपनी खिचड़ी में परेशान दुनिया,
सुरक्षित सुरक्षा कवच कौन गढ़े ।
प्रतिभा पाण्डेय “प्रति”
चेन्नई
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