Kavita Bhramit Insaan
Kavita Bhramit Insaan

भ्रमित इंसान

( Bhramit insaan ) 

 

जाने किस वहम में खोया क्या-क्या भ्रम पाले बैठा है।
जाने किस चक्कर में वो औरों के छीनें निवाले बैठा है।

भाति भाति सपने संजोए झूठ कपट का सहारा क्यों।
मोहमाया के जाल में फंसता पैसा लगता प्यारा क्यों।

रिश्ते नाते छोड़ चला नर अपनापन वो छोड़ दिया।
जहां प्रेम सरिता बहती धारा का मुख मोड़ दिया।

झूठे वादे प्रलोभन ले आदमी नित नए पांसे फेंक रहा।
काले कारनामे सारे नीली छतरी वाला भी देख रहा।

अपने आप में सिमटा नर बस मतलब ही याद रहा।
स्वार्थ के वशीभूत हुआ केवल दौलत का स्वाद रहा।

प्यार के मोती कहां बरसते होठों की मुस्कान कहां।
वाणी के तीर लिए बैठे चप्पे-चप्पे पर इंसान यहां।

भ्रमित होकर भाग रहा नर भागम भाग मची भारी।
अंधाधुंध दौड़ लगी है धन के पीछे भागे दुनिया सारी।

साथ क्या लाया क्या ले जाएगा सोच नहीं पाता है।
दो वक्त की रोटी खातिर बरसों का सामान जुटाता है।

 

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

यह भी पढ़ें :-

जवानी का जोश | Kavita Jawani ka Josh

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here