दो घोड़ों की सवारी | Kavita Do Ghodon ki Sawari
दो घोड़ों की सवारी
( Do ghodon ki sawari )
दो अश्वों पे होकर सवार मत चलना रे प्यारे।
मुंह के बल गिर जाओगे दिन में देखोगे तारे।
चाहे जितनी कसो लगाम मिल ना सकेगा विराम।
कोई इधर चले कोई उधर चले गिर पड़ोगे धड़ाम।
दो नावों पे दो घोड़ों पे वो मंझधार में जाते डूब।
दोगली जो बातें करते बद दुआएं वो पाते खूब।
दो राहों पर चलने वाले दोहरे रंग बदलने वाले।
तन के गोरे मन के काले पीड़ाओं के पड़ते जाले।
दुर्भावों से भरे पड़े हैं जिनके ख्वाब बहुत बड़े हैं।
दोहरी नीति अपनाते अपनी जिद पे जो अड़े हैं।
गिरगिट सा रंग बदलते देखे कितने हाथ मलते देखें।
सौम्य रूप धर छलते देखे कितने सूरज ढलते देखें।
दो घोड़ों की घातक सवारी मुश्किल भरी होती भारी।
डूब जाए सोने की लंका मत करना दो अश्व सवारी।
कवि : रमाकांत सोनी
नवलगढ़ जिला झुंझुनू
( राजस्थान )