Kavita Kalyug ki Kali
Kavita Kalyug ki Kali

कलयुग की कली

( Kalyug ki kali ) 

 

कली,
अधखिली
सोंच में थी पड़ी,
तरुणा में
करुणा लिए
क्रंदन का
विषपान पिए
रति छवि का
श्रृंगार किए
मन में ली वह
व्यथित बला
कलयुग कंटक की
देख कला
बन पायेगी क्या
वह फूल भला!
कली रुप में
वह बाला
जिसमें न थी
जीवन ज्वाला
नन्हीं पंखुड़ियां टूट गयीं
जीवन डाली से छूट गरी
यह गीत कहूं इस कविता का
या कहूं!
जीवन जीने की चाह भली,
सब छोड़ चली थी वह कली।
( अम्बेडकरनगर )

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