मौन | Kavita maun
मौन
( Maun )
एक समय के बाद बहुत उत्पीड़न अन्तत: मौन की ओर हमें ले जाता है।
और मौन?
निराशा की ओर।
निराशा किसी अपने से नहीं, ईश्वर के किसी निर्णय से नहीं।
मात्र खुद से।
अकेले रहते रहते हमारी आत्मा इतनी कुण्ठित होती जाती है, कि हमारा क्रोध, प्रतिशोध, आकाँक्षायें सब कुछ हमारे हृदय से रिक्त होता जाता है।
बच जाता है सिर्फ़ सब कुछ हार कर जीता हुआ एक ऐसा इन्सान,
जो बाहर से नज़र आता है मुस्कुराता हुआ, खिल्खिलाता चेहरा,
लेकिन अन्दर से बिल्कुल खोखला।
अपनी समस्त इच्छाओं को अपने ही अन्दर दफन कर के, एक भारी दिल लिए,
कुफर की तरह भटकता फिरता है।
सब कुछ झूठ नज़र आता है,
हर रिश्ते से मोह तो जैसे समाप्ति की चरम सीमा लाँघ गया होता है।
सिर्फ़ मन का शोर आसमान की तरफ बहुत तेज़ आवाज लगा कर एक ही बात कहना चाहता है,
मैं अपने जाने के जिस तरह दिन गिनता हूँ,
हे ईश्वर तुझे क्यूँ मेरी वेदना का भान नही होता??