Kavita Murkh Divas

मूर्ख दिवस | Kavita Murkh Divas

मूर्ख दिवस

( Murkh Divas )

 

हम मुर्ख बने मुर्ख रहे
आज भी मुर्ख बनें हैं मुर्ख हैं
सोचे हि नहीं कभी
तात्पर्य इस मूर्खता का
कर लिए स्वीकार्य हंसकर

चली गई चाल थी यह
हमारी संस्कृत्ति के तोड़े जाने की
पावन पुनीत चैत्र प्रतिपदा को
मुर्ख दिवस साबित करने की
हा, हम मुर्ख बने, मूर्ख रहे

रहे नही अंग्रेज शासक अब
किंतु रह गया उपहास अबतक
आधुनिक सभ्यता का भूत
निगलता हि रहा है अबतक
और हम, मूर्ख बने, मूर्ख रहे

बदलना हि नही चाहे मानसिकता अपनी
भाषा गई, परिधान गया
धर्म गया, विधि विधान गया
सभ्यता गई , कुशलता गई
सदा से हि, मूर्ख बने मूर्ख रहे
हम वास्तव में मूर्ख हि बने रहे

मोहन तिवारी

( मुंबई )

—-o—–

( 2 )

पत्नी ने पति से पूछा-
हे प्राण प्यारे
एक प्रश्न पूछुं
हां-हां
दिलकश जानेमन
दिल खोलके कहो !

हमदोनों की शादी
कितनी तारीख को
सम्पन्न हुई थी ?
” बत्तीस मार्च ”
वाह! क्या खूब
अप्रैल फूल बनाया

उसने अपने पिताजी से
कहा- डैडी
मैं आपका नहीं
नहीं हूं लाडला
इतना सुन चढ़ा
बाप का पारा ।

गुस्से में पत्नी को पुकारा
देखो नालायक
बेटा तुम्हारा –
क्या फर्मा रहा है ?
अपने को मेरा औलाद
नहीं बता रहा है

नाराज पत्नी फिर बोली-
आश्चर्य न हो
दिलवर रसियारी
यह आपको “अप्रैल फूल”
मस्ती का
अर्थ समझा रहा है!

Shekhar Kumar Srivastava

शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा( बिहार)

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एक अप्रैल

एक अप्रैल झूठ झांसा राजनीति खेल
एक अप्रैल मूर्ख बनाते राजनीति खेल

अप्रैल फूल धूल झौंकते आंखों में
पानी बताते कीचड़ नहीं आंखों में

करते वादा खोखला राजनीति में नेता
फिर जाते बोखला राजनीति में नेता

पांच सालों पल्ट कर नहीं आते
चुनाव वक़्त ईद चांद बन आते

तलवे चाट गिड़गिड़ा कर मांगते माफ़ी
कान पकड़ गिर क़दमों मांगते माफ़ी

जनता भोली भाली मवाली करती माफ़
भीतर घात से करती पाटा स़ाफ़

कभी बख़्श भी देती दोबारा मौक़ा
कभी करती बेड़ा पार कभी धोखा

‘कागा’ कभी नहीं फंसना चुंगल में
सबक़ सिखाना ज़रूर चुनावी दंगल में

कवि साहित्यकार: तरूण राय कागा

पूर्व विधायक

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