Tan ke Ujle Man ke Kale
Tan ke Ujle Man ke Kale

तन के उजले मन के काले

( Tan ke ujle man ke kale )

 

दुष्चक्रो के जाल फैलाए छल कपट दांव चलाए।
भ्रष्टाचारी खुद हो जाए लूट खसोट वो अपनाए।
घट में कितने नाग पालते स्वार्थ में रहते मतवाले।
कैसे हैं मतलब वाले तन के उजले मन के काले।
तन के उजले मन के काले

झूठ कपट सीनाजोरी अनाचार अपनाते चोरी।
बेईमानी द्वेष ईर्ष्या खुलकर करते रिश्वतखोरी।
बड़े-बड़े प्रलोभन वादे दिग्गज पद प्रतिष्ठा वाले।
चापलूसों की भीड़ है आलीशान घर शीशे वाले।
तन के उजले मन के काले

शानो शौकत में रहते खुद को महारथी वो कहते।
वाकपटुता में माहिर नर चतुराई भरे बोले बहते।
जिनके रुतबे के आगे झुक जाते हैं इज्ज़त वाले।
अपना उल्लू सीधा करते झूठी मान प्रतिष्ठा वाले।
तन के उजले मन के काले

 

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

यह भी पढ़ें :-

भगवान परशुराम | Bhagwan Parshuram par Kavita

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here