रात्रिकाल

( Raatrikaal )

 

दिन भर करते काम जो,अब हो आई शाम।
थके थके से चल रहे, छोड़के सारा काम।।

 

सूरज  ढलने  से  हुई, ठंडी  तपती  धूप।
रात सुहानी आ गई ,बिखरी छटा अनूप।।

 

चूल्हा घर-घर जल रहा,रोशन घर परिवार।
कोई पशु को नीरता, कर रहा सार संभार।।

 

टिमटिम तारे कर रहे, शीतल शशि प्रकाश।
जीव जंतु सब नीड़ में, हैं अपनों के पास।।

 

गुजरा कैसा दिवस ये, पूछ रहे हैं हाल ।
बाल खुशी हो झूमते, गल में बैंया डाल।।

 

दिन भर बिछड़े जो रहे, जगी मिलन की आस।
खाना  खाएं  साथ  में, करें  हास  परिहास।।

 

तारों  भरी  ये  रात  है,  बाहर  डाली खाट।
जल्दी निंदिया आ गई, देख रही थी बाट।।

 

कुदरत ने माया रची, बना दिए दिन- रात ।
कर्मशील हर जीव हो ,सुखमय हो प्रभात।।

?

कवि : सुरेश कुमार जांगिड़

नवलगढ़, जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

यह भी पढ़ें :-

श्राद्ध पक्ष | Shradh Paksha Kavita

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here