शर्मसार मानवता | Kavita Sharmsar Manavata
शर्मसार मानवता
( Sharmsar Manavata )
धधकती स्वार्थ की ज्वाला में
पसरती पिशाच की चाह में
भटकती मरीचा की राह में
चौंधराती चमक की छ्द्म में
अन्वेषी बनने की होड़ में
त्रिकालदर्शी की शक्ल में,
दिखता है मानव वामन बनके
चराचर जगत को मापने
लगायी है अनगिन कतारें
शुम्भ-निशुंभों की छाया में
प्रकट है नरभक्षी पर्याय में
द्वेष,क्लेश के निर्माण से ।
शेखर कुमार श्रीवास्तव
दरभंगा( बिहार)