सोच रहा बैठा एकाकी

सोच रहा बैठा एकाकी

(  Soach Raha Baitha Ekaki )

बहुत अकेलापन लगता है
जनसंकुल संसार में।
जन्मान्तर का ऋणी, गई है
पूंजी सभी उधार में।

सोच रहा बैठा एकाकी,
अभी और है कितना बाकी।
रिक्त हस्त कैसे चुकताऊं,
मेरे नाम लगी जो बाकी।

शिथिल अंग हो रहे करूं क्या
मैं इसके प्रतिकार में।
कालधार में बहता जाता
बिना किसी आधार मे।

जीने में कितनी बाधायें,
मृत्यु सदा ही दायें बायें।
फिर भी जग-जंजाल न छोड़े,
भ्रमित कर रही हैं आशायें।

उलझ रहा सब ताना-बाना
आता नहीं सुधार में।
लगता जीवन तरणी आकर
ठहर गई मंझधार में।

चारों ओर निशा है घेरी,
कहीं खो गई राह है मेरी।
अनुमानों से पार न होगी,
इस तट से उस तट की दूरी।

अब नगण्य अस्तित्व लग रहा
है अनन्त विस्तार में।
नहीं सहायक लगता कोई
है अब तो निस्तार में।

पर तुम भी क्या मुंह मोड़ोगे,
मुझको नि:सहाय छोड़ोगे।
दीन अकिंचन मुझे जानकर,
जो सम्बन्ध रहे तोड़ोगे।

नाम तुम्हारा ध्वनित हो रहा
मेरी करुण पुकार में।
क्या न मिलेगा उत्तर इसका
देव मुझे स्वीकार में।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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