ग़ज़ल खंडहर | Khandhar
खंडहर
(Khandhar )
वक्त के साथ मशीनों के पुर्जे घिस जाते है
जाने कितने एहसासों में इंसान पिस जाते है।
ज़िन्दगी का शिकार कुछ होते है इस कदर
उबर कर भी कितने मिट्टी में मिल जाते है।
शामोसहर बेफिक्री नहीं सबके नसीब में
जीने का सामान जुटाने में ही मिट जाते है।
ताकीद करता है दिल नई किसी दस्तक पर
नज़रों के सामने कई अहलेवफ़ा छिप जाते है।
जरूरत न हो तो पूछने से भी कतराते फिरते
महलों के पत्थर भी खंडहर बन बिछ जाते है।
शैली भागवत ‘आस’
शिक्षाविद, कवयित्री एवं लेखिका
( इंदौर )