खंजर
खंजर
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नरम पत्तों के शाख से हम भी बहुत ही कोमल थे पर।
है छीला लोगो ने यू बार-बार की अब हम,खंजर से हो गये।
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जिसे ही माना अपना उसने ही आजमाया इतना।
कि शेर हृदय के कोमल भाव भी सूख के,पिंजर से हो गये।
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मिट गये भाव सुधा सरिता सूखी है हृदय पटल की।
सच है ये बात की अबकी शेर का मन भी,बंजर से हो गये।
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शिकायत क्यों किससे और बार- बार ये आँसू ना अब।
जो बोला जैसा जिसने साथ उसी से, मंजर से हो गये।
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मिटा दी मोह लोभ अब लोगो की बातों मे पडना।
अब शेर भी तन और मन से, पार्थ धनुर्धर हो गये।
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कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )