खंजर

खंजर

खंजर

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नरम  पत्तों  के  शाख से हम भी बहुत ही कोमल थे पर।
है छीला लोगो ने यू बार-बार की अब हम,खंजर से हो गये।

 

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जिसे  ही  माना  अपना  उसने  ही  आजमाया  इतना।
कि शेर हृदय के कोमल भाव भी सूख के,पिंजर से हो गये।

 

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मिट  गये  भाव  सुधा  सरिता  सूखी  है  हृदय पटल की।
सच है ये बात की अबकी शेर का मन भी,बंजर से हो  गये।

 

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शिकायत क्यों किससे और बार- बार ये आँसू ना अब।
जो  बोला  जैसा  जिसने  साथ उसी से, मंजर से हो गये।

 

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मिटा  दी  मोह  लोभ  अब  लोगो  की  बातों मे  पडना।
अब शेर  भी तन और मन से, पार्थ धनुर्धर हो गये।
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✍?

कवि :  शेर सिंह हुंकार

देवरिया ( उत्तर प्रदेश )

 

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