क्या कहूं! ये इश्क नहीं आसां
क्या कहूं! ये इश्क नहीं आसां

क्या कहूं! ये इश्क नहीं आसां

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साजिश की बू आ रही है
घड़ी घड़ी उसकी याद आ रही है
इंतजार करके थक गया हूं
फिर भी नहीं आ रही है।
क्या ऐसा करके मुझे सता रही है?
क्या कहूं ?
साजिश की बू आ रही है
यूं ही तो नहीं मुझे तड़पा रही है
ऐसा न हो कि वो मुझे तरसा रही है!
ऐसा तो नहीं होना चाहिए
क्यों वो मेरी तड़प का इम्तहान ले रही है?
अपनों से ऐसा व्यवहार!
और अपनों के प्रति ऐसा विचार?
नहीं होना चाहिए,
मुझे भी तो ऐसा नहीं सोचना चाहिए।
ये साजिश की बातें!
कहीं ओछी तो नहीं?
मेरा वहम, भ्रम भी हो सकता है।
न आने की कोई वजह हो सकती है,
खामख्वाह देरी होने पर-
दिलो-दिमाग में ऋणात्मकता पनपती है;
इसलिए बहकी बहकी बातें-
मन मस्तिष्क में उपजती हैं।
अजीब अजीब सी फीलिंग होती है,
लेकिन
वो ऐसा तो नहीं कर सकती;
प्यार जो मुझसे बहुत करती है।
वाकई देरी हो सकती है,
ट्राफिक में फंस सकती है।
न आने की हजार वजहें हैं,
ये साजिश वाजिश ठीक नहीं;
अपने वहम को रखो काबू में-
यह प्रेम है।
कोई युद्ध नहीं!
धीरे धीरे आती है/ होती है,
धीरे धीरे अन्तर्मन में समाती है।
भाव समर्पण का हो-
तो फिर एक सूत्र में बंध जाती है,
वरना राहें जुदा हो जातीं है।

 

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नवाब मंजूर

लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर

सलेमपुर, छपरा, बिहार ।

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