Machhar par kavita

कहते है मुझको मच्छर | Machhar par kavita

कहते है मुझको मच्छर

( Kehte hain mujhko machhar )

 

कहते है मुझको यहां सभी लोग मच्छर,
में इंसानों का ख़ून पीता हूं घूम-घूमकर।
घूमता रहता हूं में दिन रात और दोपहर,
भूख मिटाता हूं में उनका ख़ून-चूसकर।।

पुरुष अथवा महिला बच्चें चाहें वो वृद्ध,
पीता हूं में रक्त इनका समझकर शहद।
चीटी-समान हूं पर डरता नही किसी से,
भूल जाता हूं मैं अपनी औकात व हद।।

वैसे तो ये ख़ून आजकल पी रहें है सब,
जाल-झूठ छल कपट कर जी रहें सब।
भूखें भेड़ियों के समान हो रहें है इंसान,
एक-दूसरे से विश्वासघात कर रहें सब।।

डेंगू डायरिया मलेरिया इनका में जनक,
सतर्क पहले करता फिर करता अटैक।
गुनगुनाता आता रागनी ऐसी में सुनाता,
सब जगह घूमता चलता मटक-मटक।।

कोई गुडनाईट मोरटिन कछुएं से डराते,
आलआउट जेट एवं ओडोमोस लगाते।
कोई मच्छरदानी में आराम से सो जाते,
तो कोई ज़हर वाली अगरबत्ती जलाते।।

 

रचनाकार : गणपत लाल उदय
अजमेर ( राजस्थान )

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