
मदांध हो ना करें कोई चर्चा !
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चर्चा की जब भी हो शुरुआत,
टाॅपिक हो कुछ खास ।
समसामयिक मुद्दे हों या
हो इतिहास/विज्ञान की बात!
बारी बारी से सबकी सुनें,
फिर अपनी बात भी गंभीरता से कहें।
उद्वेगी स्वर या उतावलेपन की-
ना हो बू-बास,
तथ्यपरक जानकारियों पर करें विश्वास।
तर्क सबका अपना अपना और अलग हो सकता हैं,
कोई आधा भरा तो कोई आधा खाली कह सकता है।
दोनों ही सही हैं,
सत्य भी है।
नज़रिया है अपना अपना!
तर्क से तो केवल सत्य निकलता है,
जो सम्पूर्ण होता है;
सबको स्वीकार्य भी होता है।
होना भी चाहिए,
केवल मेरा ही सही है-
ऐसा नहीं होना चाहिए।
अगर दूसरे का तर्क सही है?
तथ्यों से भरी हुई है
तो बड़ा हृदय कर स्वीकारें,
यूं मदांध हो नहीं नकारें।
वरना चर्चा दिशाहीन हो जाएगी,
सत्य/तथ्य से भटक जाएगी;
बिना बात पे अटक जाएगी।
नहीं निकल पाएगा वो
हम-सब चाहते हैं जो।
समग्र, तथ्यपरक, सर्वमान्य निष्कर्ष पर
नहीं पहुंच पाएंगे,
अपने ज्ञान की सीमाओं में ही रह जायेंगे।
तो कैसे बुद्धिजीवी कहलाएंगे?
अपने ज्ञान कौशल से समाज को कुछ नहीं दे पाएंगे,
कूपमंडूक के कूपमंडूक ही रह जाएंगे।
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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