मन का लड्डू

( Man ka Laddu ) 

 

जाने कितने स्वप्न संजोए,
मन का ताना बाना बुन।
मन में लड्डू फूट रहे थे,
जीवन में खुशियों को चुन।

मन में मोतीराम बने हम,
मन ही मन इठलाते थे।
मन के लड्डू फीके ना हो,
भावन ख्वाब सजाते थे।

मन ही मन में ठान लिया,
उछल पड़े मन में लड्डू।
मंच माला माइक हमारे,
आयोजन बन बांटे लड्डू।

मन ही मन में सैर सपाटे,
हम हसीं वादियो में घूमे।
कल्पनाओं के पंख लगा,
जा नीलगगन में हम झूमे।

मन मतवाला मौजी सा,
मथुरा वृंदावन जा धाया।
बंसी वाला कृष्ण कन्हैया,
अधर मुरलिया धर आया।

 

कवि : रमाकांत सोनी सुदर्शन

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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