मन की उलझन | Man ki Uljhan
मन की उलझन
( Man ki Uljhan )
मन को क्यों,उलझाना भाई ?
मन से नहीं है ,कोई लड़ाई ।
मन की उलझन ,को सुलझायें ।
गांठ सभी अब ,खुल ही जायें ।
लायें बाहर अब, गुबार सारे ।
जिससे मिटें ,संताप हमारे ।
मन को , जितना उलझायेंगे ।
उतना कष्ट , हम ही पाएंगे ।
सोचें अब ,कोई ऐसी युक्ति ।
पायें हर ,उलझन से मुक्ति ।
मन को क्यों ,उलझाना भाई ?
इससे अपनी , नहीं लड़ाई ।
प्रगति दत्त
यह भी पढ़ें :