माया की छाया!

( Maya ki chhaya ) 

 

तृष्णा तेरी कभी बुझती नहीं है।
झलक इसलिए उसकी मिलती नहीं है।
निर्गुण के आगे सगुण नाचता है,
क्यों आत्मा तेरी भरती नहीं है।

पृथ्वी और पर्वत नचाता वही है,
प्रभु से क्यों डोर तेरी बँधती नहीं है।
कितनी मलिन है जन्मों से चादर,
बिना पुण्य के ये धुलती नहीं है।

साजन की बाँहों में झूला तू झूलो,
बिना पेंग मारे नभ छूती नहीं है।
सुनते बहुत हो कि अनमोल जीवन,
क्यों मन की खिड़की खुलती नहीं है।

दो कौड़ी चीजों पे नजर न गड़ाओ,
है दुर्लभ ये देह जल्दी मिलती नहीं है।
करो कर्म अच्छा तू दया धर्मवाला,
माया की छाया ये हटती नहीं है।

पल-पल ये सांसें कम हो रही हैं,
उस नाम को क्यों ये रटती नहीं हैं।
दिखावे से तुमको न मुक्ति मिलेगी,
साहब से अपने क्यों मिलती नहीं है।

फाड़ो न नभ को लालच से अपने,
दर्जी की सुई वो सिलती नहीं है।
ज्ञान की डाल पे अगर न चढ़ोगे,
टटोलो हवा में जड़ मिलती नहीं है।

 

लेखक : रामकेश एम. यादव , मुंबई
( रॉयल्टी प्राप्त कवि व लेखक)

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