मेघा | Kavita
मेघा
( Megha )
बरस रे टूट कर मेघा, हृदय की गाद बह जाए।
सूक्ष्म से जो दरारे है, गाद बह साफ हो जाए।
बरस इतना तपन तन मन का मेरे शान्त हो जाए,
नये रंग रुप यौवन सब निखर कर सामने आए।
दिलों पे जम गयी है गर्द जो, उसको बहा देना।
सजन रूठे है जो तो, साँवरी से तुम मिला देना।
बरस इतना कि प्रियतम चाह के भी, जा नही पाए,
रति को देख कर अनंग के मन, प्रेम भर देना।
यही सावन का पानी है,जो चढती सी जवानी है।
नशों में भर गया इतना, जवानी की रवानी है।
बरस रे टूट कर मेघा, कि सारे बाँध टूटे अब,
जो देख ये कहे कि वाह, क्या सुन्दर सी कहानी है।
यही वो मेघ है जो बादलों को, चीर कर गिरता।
धरा की प्यास बुझती मन में,तृष्णा को जगा देता।
बरस रे टूट कर मेघा, कि ऐसा शेर लिख जाए,
जो तोड़े मन के सब तटबंध,और इतिहास गढ़ देता।
कवि : शेर सिंह हुंकार
देवरिया ( उत्तर प्रदेश )