Mohini Nari

नारी नित नमनीय

( Nari Nit Namniye )

 

रंग बिखरे हों रंगोली से
भरा हो सारा आकाश
नेह का काजल लगाकर
खत्म सारे ‘ काश’ हों …..!
आदी से उस लक्ष्य तक की
वीथिका के वृत्त को
जोड़ती और संवारती
अब बने हम व्यास।

जगत सृजित करे नारी ही
बहन बेटी पत्नी मां का रूप
रिश्तों से परिवार सजाती
धरती पर रूप अनूप!

हर युग में नारी बनी
बलिदानों की आन
खुद को अर्पित कर दिया
कर सबका उत्थान।
सोचती वह … कुछ अनकही बातें
उमड़ रही है अंतर्मन में
कहूं या चुप रहूं, यही कश्मकश में मन
डरती कहीं कुछ टूट न जाए
छूट न जाए
जो वर्षों से सींचकर एकत्र किया
कहीं बिखर न जाए!
तभी एक अनकही – सी दस्तक होती है
हृदय पटल पे इसी सोच में
नारी तूने
बिता दिए युग न जाने कितने!
त्याग की बात सिखाकर
हे! सृजन हितकारी
मिलकर अब आवाज़ उठा
कि सुन …..
नारी तू अब हारी नहीं
तेरे वजूद से दुनिया सारी
उठ! बलिदानी
मिलकर अब आवाज़ उठा
चीरहरण पश्चात, नही फिर द्रोपती हारी
सृष्टि जगत बुनियाद
शशक्त है मां हमारी।

पुष्पा त्रिपाठी “पुष्प”
साहित्यकार सह शिक्षिका
बेंगलोर (कर्नाटक)

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