ओज | Oj
ओज
( Oj )
बड़े हुए तो क्या हुए
जब कर न सके सम्मान किसी का
समझे खुद को अधिकारी पद का
समझ ना पाए स्वाभिमान किसी का
चाहे ,खुद ही को चर्चित होना
ऊँचे आसन का मान लिए बैठे
मन के भीतर समझे कमतर सबको
खुद को ही प्रथम शीर्ष किए बैठे
ऐसी छाया का मूल्य भला क्या होगा
जहां न परिंदे भी रहना चाहें
होगा गर्व तुम्हें निजता पर अपने
कोई हृदय से पर, ना मिलना चाहे
श्रेष्ठ वही जो श्रेष्ठ बनाए
पथिक वही जो राह दिखाए
नाम के काबिल तो हैं यह जर्जर राहें
जो खंडित होकर भी मंजिल तक पहुंचाएं
रोज़ न रहेगा ओज तुम्हारा
शब्दों के मधु में ही शक्ति नहीं होती
हृदय न जिसके सम्मान किसी का
उसकी प्रभु में भक्ति नहीं होती
( मुंबई )