पापा की यादें

( Papa ki Yaadein ) 

 

पूछ रहे थे तुम मुझसे
आंखें क्यों भर आई है
गूथ रही थी आटा में
बस यू ही कहा था मैंने
याद पिता की आई है
बरबस ही बरस पड़ी ये
अश्रु की जल धारा बनके
सावन के इस मौसम में
मन ने बातें दोहराई है
जितना प्यार दिया तुमने
उतना ही वह करते थे
अंतर इतना बस है देखो
तुम साथ निभाते हो मेरा
वह उंगली पकड़ के चलते थे
हृदय के इस बंद पिटारे में
उनकी भूली बिसरी यादे है
तुम्ह अभी समझ न पाओगे
यह पिता पुत्री की बातें हैं
चली वहां से मैं पूरी आई
जो शेष छूट रहा था वह
मन के कोने में रख लाई
दौड़ कर देती थी चश्मा
उनकी घड़ी और रुमाल
गलतियों पर समझाते थे
प्यार से सिर सहलाते थे
कच्चा पक्का जो भी बना
रानी बिटिया का हे बना
नमक डला हो चाहे कितना
कहते थे बड़ा स्वादिष्ट बना
खाली हाथ वह घर ना आये
पसंद की हर चीज वो लाये
मुंह पर रहता था मेरा नाम
करवाते न थे कोई भी काम
फोन पर बातें हो जाती थी
खुशी इसी में मिल जाती थी
धीरे-धीरे समय भी गुजरा
खबर मिली दौड़ी में पहुंची
चमन का माली रूठ गया
फिर साथ हमारा छूट गया
यदा कदा खुल जाता पिटारा
आंखों से फिर बहती धारा
तुमको मैं कैसे समझाऊं
नारी में कई रूप बसे है

 

डॉ प्रीति सुरेंद्र सिंह परमार
टीकमगढ़ ( मध्य प्रदेश )

यह भी पढ़ें :-

मिशन चंद्रयान | Mission Chandrayaan

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here