कुपित हो रही है यह प्रकृति | Paryavaran par Kavita in Hindi
कुपित हो रही है यह प्रकृति
( Kupit ho rahi hai yah prakriti )
आत्महंता कर्म हम कर रहे हैं,
कुपित हो रही है यह प्रकृति
जीव–जंतु सभी यहां मर रहे हैं
है ये पर्यावरण की ही व्यथा कि,
हो रहा जो पर्यावरण दूषित यहां
आज सभी पक्षी भी हमारे लुप्त होते !
भोजन के लिए इधर उधर भटक रहे हैं ।।
आज निरंतर कटते वृक्ष चीख कर देखो
ये पर्यावरण की व्यथा हमसे कह रहे हैं,
त्राहिमाम थरथर यह धरती भी गर्मी से
जैसे जल उठी है ,ताप कैसे वह सह रही ,
वृक्षों के बिना धारा की झोली खाली पड़ी है
बिन सावन में वर्षा के कैसे वह श्रंगार करें
कैसे वातावरण बदलाब से सब प्यार करें।।
आशी प्रतिभा दुबे (स्वतंत्र लेखिका)
ग्वालियर – मध्य प्रदेश