Pati dhadkano ki
Pati dhadkano ki

पाती धड़कनों की

( Pati dhadkano ki ) 

 

दिल की स्याही में
पिरो- पिरो कर
जज़्बातों का रस
घोल- घोल कर –
भाषा का मधु उड़ेल कर
मोती जड़े अक्षरों का
जादू बिखेर कर-
छलकती- महकती जब
पहुंँचती थी चिठिया
पाने वाला इस रंगीन जादू से
तरबतर हो जाता था
खुद महकता-
परिवेश को
भी महकाता था।

प्रतीक्षारत आंँखें
उत्सुकता से द्वार पर
ठहरा करती थीं –
डाकिए के इंतजार पर
और आतुरता -आकुलता की
इस धारा में
जब पाती मिलती-
तो बह पड़ती थी
स्वागत- सत्कार को देखकर-
कि परिशुद्ध था शब्दों का-
भावों से मिलन
काग़ज़ी कैनवास पर
नेह की थिरकन औ चित्रांकन
कि लिखने वाला हर कोई कवि-
था कलाकार या शिल्पकार!

अब तो टाइप होता है
और वह भी ग़लत कमाल का!
न जज़्बातों का उपहार
न ही दिल से दिल का तार !
न ही पढ़ने से मधुर झंकार होती है
एक औपचारिकता है
सो पूरी की जाती है
तकनीक लिखेगी तो,
हाथों की खुशबू कहांँ !
स्पंदन तो होगा की बोर्ड में
तेरी -मेरी धड़कन कहांँ धड़केगी।

 

@अनुपमा अनुश्री

( साहित्यकार, कवयित्री, रेडियो-टीवी एंकर, समाजसेवी )

भोपाल, मध्य प्रदेश

 [email protected]

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