पतझड़ | Patjhad
पतझड़
( Patjhad )
दूसरों को पतझड़ देकर, लोग ख़्वाब देखते बाहर का;
ख़ुद की ख़बर नहीं, इम्तिहान लेते हमारे सच्चे प्यार का ।
होंठों पर सजी झूठी मुस्कान अब रह गई किस काम की;
जो दिल से ही निकाल दिया तुमने दर्द अपने दिलदार का ।
मिठास वो क्या जाने,जो चुरा ले गए रस जिंदगी का;
बड़ी चलाकी से कर गए क़त्ल, हमारे बेइंतहा एतबार का ।
ये आँखों का धोख़ा होता तो कुछ समझा भी लेते;
पर वो तो जाते-जाते ले उड़े, हर हसीं नज़ारा नज़रे-दीदार का ।
जब तलक सुर्ख़ियों में थे, सब अदब से पूछा करते थे;
अब देखते भी नहीं ; जैसे हम हो कोई टुकड़ा रद्दी अख़बार का ।
माजी में ज़रूर कोई बड़ा गुनाह हो गया होगा ‘दीप तुमसे;
वरना इस अंधेरे में कोई तो रोना सुनता इस दिले दाग़दार का ।
दूसरों को पतझड़ देकर लोग ख़्वाब देखते बाहर का;
ख़ुद की ख़बर नहीं, इम्तिहान लेते हमारे सच्चे प्यार का ।
कवि :संदीप कटारिया ‘ दीप ‘
(करनाल ,हरियाणा)