
बस वो बिकी नहीं
( Bas wo biki nahi )
श्रृंगार की गजल कोई, हमने लिखी नहीं।
सूरत हुजूरे दिल की, जबसे दिखी नहीं ॥
बिक गई थी लाखो में, इक तस्वीर बेहया,
जिसमें लिखा था मां, बस वो बिकी नहीं ॥
हंसते रहे तमाम उम्र, जिसको छिपाके हम,
हमसे वो बातें प्यार की, फिर भी छिपी नहीं ॥
नींव में ना हों जहां, ईमान के पत्थर..!
ऐसी इमारतें भी, ज्यादा टिकी नहीं ॥
हो गया है घर का, जिस रोज से हिस्सा
वो बीच की दीवार भी, तबसे लिपी नहीं॥
‘चंचल’ बहुत ही झूठे हैं, ये गीत कहकहे..!
बस्ती जो उजड़ी दिल की वो फिर बसी नहीं।
कवि : भोले प्रसाद नेमा “चंचल”
हर्रई, छिंदवाड़ा
( मध्य प्रदेश )