Poem naraz manzilen

नाराज मंजिलें | Poem naraz manzilen

नाराज मंजिलें

( Naraz manzilen )

 

मंजिल नाराज़ हैं, और रास्ते गुमनाम से हैं
जिन्दगी तू ही बता, हम यहां किस काम से हैं।

दिखाने लगें है वो लोग भी आईना
नाम जिनका मेरे नाम से है ।

संभलती नहीं दुश्वारियां मुकद्दर की
और तू यँहा कितने आराम से हैं।

तेरी मेहरबानी नहीं तो और क्या
मुहब्बत तुमसे और रिश्ता अब जाम से है ।

जिसकी सुबह ही ना हो ” गौतम “
मुझे क्या मतलब उस शाम से है ।

 

शायर: गौतम वशिष्ठ

झुन्झुनूं (राजस्थान)

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