एक पुरुष की पीड़ा | Purush ki Peeda
” एक पुरुष की पीड़ा “
( Ek purush ki peeda )
कहने को तो मर्द ताकतवर होता है,
पर उससे बड़ा कमजोर कोई नहीं होता,
कानून भी बने हैं नारी की सुरक्षा के लिए
मर्दों की कोई सुनने वाला कहाँ होता है।
जीवन भर परिवार के लिए कमाता है,
जोड़कर जमा पूंजी आशियाना बनाता है,
उसके धन को देता है कानून स्त्री धन का दर्जा
उसके हिस्से में सिर्फ सन्नाटा आता है।
बेकसूर होते हुए भी कसूरवार कहलाता है,
निष्कपट होते हुए भी गुनहगार साबित होता है,
परिवार की खुशियों के लिये करता है सब कुछ
बदले में कहां उनसे उतना सम्मान पाता है।
पुरुष की पीड़ा को पुरुष ही समझ सकता है,
है कोई ऐसा जो इन्हें इंसाफ दिला सकता है,
या यूं ही पुरुषों को घुट घुट कर जीना पड़ेगा,
ये सोच सोच कर मेरा मन घबराता है।
पुरुष होना भी आसान कहां होता है,
हर रोज हर पल बहुत सहना होता है,
दिखा नहीं सकते अपने आंसुओं को
बस लोगों से छुप कर ही रोना होता है!
महिलाओं का सम्मान करना होता है,
उनका हर कहा हमें तो मानना होता है,
कोई हम पुरुषों से भी तो पूछ ले साहब
हमारे दिल में तो कुछ अरमान होता है!
पुरुष भी बेवफाई का शिकार होता है,
दिल टूटने पर पुरुष को भी दर्द होता है,
भावनाओं को हमारी समझने के बजाय
पुरुष ही हर बार घृणा का पात्र होता है!
अंत में मैं इतना ही कहना चाहूंगा कि
सिर्फ औरत शोषित नहीं होती है,
मर्द भी शोषित होता है,
फर्क सिर्फ इतना है कि वह किसी से नहीं कह पाता है!
कवि : सुमित मानधना ‘गौरव’
सूरत ( गुजरात )