क़यामत कम नहीं होती | Qayamat Kam Nahi Hoti
क़यामत कम नहीं होती
( Qayamat Kam Nahi Hoti )
निकलते जब वो सज-धज के तो आफ़त कम नहीं होती
जिगर पर तीर चलते हैं क़यामत कम नहीं होती
मुहब्बत बाँटिए जग में ये बरकत कम नहीं होती
मिले ख़ुशियाँ ज़माने को मसर्रत कम नहीं होती
कहाँ आता किसी को अब सलीक़े से यहाँ चलना
चले हम ग़र उसूलों पर शराफ़त कम नहीं होती
सदा ही ज़ुल्म ढाते वो बिचारी भोली जनता पर
करो कितनी शिकायत भी सियासत कम नहीं होती
करो तुम ख़र्च कितना भी मगर बढ़ती हमेशा है
कभी भी इल्म की देखो ये दौलत कम नहीं होती
मिटाने तीरगी ख़ुद को जलाते लोग हैं अक्सर
उजालों से मगर उसकी अदावत कम नहीं होती
सितम ढाये ज़माना ये भला हमपे हज़ारों पर
मगर इस ज़ीस्त में तेरी ज़रूरत कम नहीं होती
ज़मीं से इस फ़लक तक है ख़ुदा की ही हुकूमत पर
बता फिर क्यों जहाँ से देख नफ़रत कम नहीं होती
तमन्ना भी नहीं है ताज और तख़्तों की ऐ मीना
मेरी नज़रों में चाहत की ये दौलत कम नहीं होती
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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