रक्षाबंधन का बसंत 

( Raksha Bandhan ka Basant ) 

 

अब न रिस्तों का होगा अंत

रक्षा बंधन का आया है

ले लेकर खुशियों का बसंत

अब न रिस्तों का होगा अंत।

 

रंग बिरंगे उन धागों का

गुच्छ अनोखा अनुरागों का,

गांठ बांध कर प्रीति सजाकर

अरुण भाल पर तिलक लगाकर,

 

दीप जलाकर अरति फेर कर

लालित्य प्रेम फैला अनंत,

अब न रिस्तों का होगा अंत।

 

सौगात लिए मीठा मीठा

रिस्तें उत्तम प्रीति अनूठा

तीन तीन गांठों में कस कर

जनम जनम तक प्रीति बांधकर

 

समय समय हर एक मौसम में

महक गया त्योहार दिगंत,

अब न रिस्तों का होगा अंत।

 

रचनाकार रामबृक्ष बहादुरपुरी

( अम्बेडकरनगर )

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