रक्षक
रक्षक
जन्म लेकर जब वह आंख खोलती है
देख कर दुनिया जाने क्या सोचती है
भरकर बाहों में है प्यार से उठाता
शायद इसे ही मां कहा जाता
चारों तरफ है लोगों की भीड़
किससे कौन सा रिश्ता नाता
कोई भाई, चाचा कोई तो कोई मेरा पिता कहलाता
मैं तो ढूंढूं उसे यहां जो मेरा रक्षक कहलाता
डरी हूं सहमी हूं फिर भी देखो खड़ी हूं
इतने जख्म पाकर भी बार-बार मैं लड़ी हूं
देखकर आंखें रोती हैं, जब वह दुनिया को पाठ पढ़ाता
खुद अज्ञानी होकर लोगों को है ज्ञान सिखाता
कैसे कह दूं दुनिया से इनसे मेरा रिश्ता कहलाता
मैं तो ढूंढूं उसे यहां जो मेरा रक्षक कहलाता
पीकर सारे आंसू देखो जिंदगी जी रही हूं
टूटे दिल के टुकड़ों को इस तरह मैं सी रही हूं
तेरे इन अत्याचारों को मुझसे अब सहा नहीं जाता
सुधर जा ए जालिम कि हर बार अब कहा नहीं जाता
मैं तो ढूंढूं उसे यहां जो मेरा रक्षक कहलाता
?
लेखिका : अमृता मिश्रा
प्रा०वि०-बहेरा, वि०खं०- महोली
सीतापुर (उत्तर प्रदेश)
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