सभी बशर यहाँ के यार बे-ज़बाँ निकले
सभी बशर यहाँ के यार बे-ज़बाँ निकले
सितम ही सहते रहे वो तो ला-मकाँ निकले
सभी बशर यहाँ के यार बे-ज़बाँ निकले
न कल ही निकले न वो आज जान-ए-जाँ निकले
कि चाँद ईद के हैं रोज़ भी कहाँ निकले
तबाही फैली कुदूरत की हर तरफ़ ही यहाँ
कहाँ कोई भी मुहब्बत का आशियाँ निकले
रहे-वफ़ा में न हासिल हुआ हमें कुछ भी
ज़मीं मिली न कहीं,सर से आस्माँ निकले
किया है ख़ून हमारी सभी उमीदों का
वो राजदाँ ही बने और न पासवाँ निकले
बहुत थी आरज़ू वो नाम कुछ करें रौशन
न छोड़ पाये निशाँ ही बे-निशाँ निकले
वफ़ा पे रोज़ उठाई हैं उँगलिया उसने
नज़र में उसकी फ़क़त हम तो बदगुमाँ निकले
जला ये दिल है मुहब्बत में इस क़दर मीना
बदन ये ख़ाक हुआ सारा बस धुआँ निकले
कवियत्री: मीना भट्ट सिद्धार्थ
( जबलपुर )
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