Samadar se Nadi

समंदर से नदी लौटी जा रही थी…

( Samandar se nadi lauti ja rahi thi ) 

 

कैनवास पर उतरी थी एक नदी
समंदर से मिलन की ख्वाहिश संजोए
अठखेलियां करती
बेधड़क विचरण करती
शुष्क मरूधरा पर बहती जाती…

निश्छल सी प्रेम पथ पर
बाधाओं के दरख़्त गिनती
ना थकती थी ना रूकती
बस रौं में अविरल बहती जाती…

बांध बनाने की कोशिश हुई
तबाही कह कर जलील की गई
समंदर ने भी एक दिन दुत्कार दिया
मिलन से था इंकार किया…

क्षोभ अधिक था या तिक्तता
इतना आसां न था समझना
बिन गुनाह का था यू रौरव गहरा
नासूर बन था अपमान ठहरा…

गहरे स्याह आँखों के घेरे सी
सूखे पपड़ाए अधर सी
निस्तेज पड़ी पीली धरा सी
समंदर से दूर नदी अब लौट रही थी…

 

डाॅ. शालिनी यादव

( प्रोफेसर और द्विभाषी कवयित्री )

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