सारथी

( Sarathi ) 

 

यूं ही गुजरते रहेंगे दिन महीने साल
लेते रहिए वक्त का भी हाल चाल
लौट कर न आएं कहीं फिर दिन वही
कहना न फिर किसीने कहा नही

आंख मूंद लेने से कुछ बदलता नही
कौन कहता है वक्त फिसलता नही
कैसे कहूं मैं तुम्हे आज शब्दों मे खुले
करो जरा याद ,तुम बहुत कुछ हो भूले

देखते ही गुजर गए साल कैसे पचहत्तर
निरपेक्षता की आड़ मे हुए और बदतर
चाल थी गहरी ,और तुम रहे बेखबर
बढ़ते गए लोग ,तुम होते गए कमतर

भाई चारा मे तुम , चारा ही बने रहे
सर्व धर्म सम भाव में अकड़े तने रहे
उजड़ती रहीं गलियां और बस्तियां सारी
और सुनाई जाती रहीं ,तुम्हे लोरियां प्यारी

समय का परखी तुम्हे भी बनना होगा
अर्जुन तो कहीं सारथी तुम्हे भी बनना होगा
कंधे पर बोझ तुम्हारे कल का है साथी
चलोगे साथ मिलकर , तभी होगे सारथी

 

मोहन तिवारी

 ( मुंबई )

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