घटा घनघोर घन घन बरसे,दामिनी तडके है तड तड। धरा की प्यास मिटती, तन मे जगती प्यास है हर पल।

शकुन्तला | Shakuntala kavita

शकुन्तला

( Shakuntala kavita )

 

घटा घनघोर घन घन बरसे,दामिनी तडके है तड तड।
धरा की प्यास मिटती, तन मे जगती प्यास है हर पल।

 

मिले दो नयन नयनो से, मचल कर कामना भडके।
लगे आरण्य उपवन सा,अनंग ने छल लिया जैसे।

 

भींगते वस्त्र यौवन से लिपट कर, रागवृंत दमके।
रति सी भावना मचले, शकुन्तला रूप यौवन से।

 

कली कचनार सी, गजगामिनी जड सी खडी रहकर।
लरजते कांपते अधरों से, षोडषी देखती थमकर।

 

श्वास गति तीव्र होकर के, तपन तन की बढाते थे।
खडे दुष्यंत मन्मथ मनसिजा, रविकान्त प्यारे से।

 

प्रणय की भावना भडकी,रूकी फिर न मदन बरसी।
लिया गन्धर्व साक्षी काम तन की, पुष्पधंव रति सी।

 

मिले जब मन वदन की प्यास, बादल रूक गए गिर के।
धरा सी शान्त होकर के शकुन्तला, देखती लज के।

 

मिलन था शक्ति का शिव से, चराचर सत्य सृष्टि का।
नही हुंकार था इसमें , प्रणय यह शेर दृष्टि का।

 

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कवि :  शेर सिंह हुंकार

देवरिया ( उत्तर प्रदेश )

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शेर सिंह हुंकार जी की आवाज़ में ये कविता सुनने के लिए ऊपर के लिंक को क्लिक करे

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