शरद का चाँद
शरद का चाँद
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शरद का चाँद लिए दिखा आज अंबर,
चांदनी में नहाया जग दिख रहा अतिसुंदर।
जगमगा रहा जग सारा रौशनी में नहाकर,
कभी छत तो कभी आंगन से-
निहार रहा हूं नीलांबर।
पछुए की छुअन से सिहरन सी हो रही है,
देख चांदनी , चकोरी विभोर हो रही है।
उमड़ रहा नयनों में, प्रेम का समंदर,
सुलग रहा है तन मन, अंदर ही अंदर।
ऊपर से बह रही ये मधुर शीतल बयार,
अंदर उमड़ रहा प्राणियों के प्यार ही प्यार।
इतने में वो आई,फिजा महकाई,
देख उसे चांदनी लजाई;
मुझसे भी सुंदर यह स्त्री कहां से आई?
चांदनी रात में लग रही है उर्वशी,
छत पर धीरे से खीर है रख रही ।
हंसी पल्लू से कभी ढंक रही,
तो कभी चुपके से मुझको है तक रही;
बिन बोले वह बहुत कुछ है कह रही।
असमंजस में निहारता हूं ऊपर नीचे,
शर्म से वो खड़ी है पल्लू खींचे।
फर्क न कर पाया कौन है सुंदरतम,
चांदनी लिए चंद्र या
अधरों पर लाली लिए यह चंद्र बदन;
हां कुछ ऐसी है मेरी प्रियतम।
अनुभूति हो रही है आज असीम खुशी की,
घूंघट की ओट से जो दिख रही हंसी उसकी।
देख तन-मन प्रफुल्लित हुआ,
प्रेम का दीपक जो फिर नवोदित हुआ।
पर यह कैसी बेबसी?
न वो कुछ कह रही,
न मेरे मुख से कुछ निकल रहा!
उलझन है बड़ी ,
रखा हूं धैर्य अभी, कहने को तो उम्र हैं पड़ी।
?
लेखक-मो.मंजूर आलम उर्फ नवाब मंजूर
सलेमपुर, छपरा, बिहार ।
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