Smritiyon ke Jharokhon se

स्मृतियों के झरोखे से | Smritiyon ke Jharokhon se

स्मृतियों के झरोखे से

( Smritiyon ke Jharokhon se )

स्मृतियों के खोल झरोखे,
दृष्टि विगत पर डाली।
कितनी ही रूपाकृतियों ने,
आभा क्षणिक उछाली।

जो तारे से उदित हुये,
वे जाने कहां हले।
जो जीवन से सराबोर थे,
पड़कर चिता जले।
जिनका हाथ पकड़कर
हमने चलना है सीखा,
जाने किस अनजाने देश को
वे सब गये चले।

वर्तमान इतिहास बन गया,
कालचक्र के चलते।
खिले पुष्प थे जो बगिया के,
तोड़ ले गया माली।

जीवन के ही साथ मृत्यु का,
बंधन हो जाता।
है शरीर का प्राणों से बस
सीमित सा नाता।
सभी जानते जगती का
व्यापार क्षणिक ही होता,
फिर भी मानव संवेदन है,
शांति नहीं पाता।

हार-जीत है, सुख-दु:ख भी है,
आशा और निराशा,
खेल निरन्तर चलता रहता,
रहे बदलती पाली।

युगों युगों से अनाद्यंत है,
काल-चक्र चलता।
सब विमूढ़ से रह जाते हैं,
यह सबको छलता।
आज गये कुछ अपनी बारी,
कल कुछ जायेंगे,
पर जिजीविषा का दीपक है,
कभी नहीं बुझता।

ग्यानी जन भी बहुत बार हैं,
धैर्य नहीं रख पाते,
पलकों से आंसू की धारा,
जाती नहीं सम्हाली।

sushil bajpai

सुशील चन्द्र बाजपेयी

लखनऊ (उत्तर प्रदेश)

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