तुम्हारा साथ और तुम
तुम्हारा साथ और तुम
मैंने हमेशा प्रयत्न किया,
अपने अनुराग को पारावार देने का,
एवं उसकी नीरनिधि में समाने का,
तुम्हारे चेहरे की आभा,
और उस पर आई
हँसी को
कायम रखने का,
किन्तु-
मैं हमेशा
नाकामयाब रही,
क्योंकि–
तुम मुझे एवं मेरे प्यार को
समझ ही नहीं पाये।
तुम मेरी
भावनाओं में लिप्त,
परवाह को
भांप न सके,
मालूम है कि-
हमेशा साथ संभव नही,
फिर भी मैंने हमेशा ढूंढ़ी तलाशी,
तुम्हारे साथ रुक जाने की
सम्भावनायें…
किन्तु-
मेरे हिस्से में आई-
केवल प्रतिक्षाएँ…
असीमित प्रत्याशाएँ…
अनगिनत परवशता….
अनेकों ऊहापोहता का वेग,
और अलगाव की वेदनाएँ…..
हाँ-
अगर नहीं आया तो
वह है,
‘तुम’ और ‘तुम्हारा साथ’ ।।

डॉ पल्लवी सिंह ‘अनुमेहा’
लेखिका एवं कवयित्री
बैतूल ( मप्र )
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