वक्त का दौर

( waqt ka daur ) 

 

समझौता जरूरी है जिंदगी में
अगर वह सामान, संबंध या साथ का हो
बहुत कठिन होता है देख पाना
अपने स्वाभिमान को ही तिल तिल मरते हुए

स्वाभिमान ही अपनी कमाई है
वहीं अगर हो जाए मजबूर किसी के हाथों
तो बंधक जमीर नहीं
आदमी स्वयं गुलाम बन जाता है

मजबूरियां तोड़ देती है इंसान को
कभी आदमी समझ लेता है कमजोर खुद को
हार जाते हैं जो अपनी सोच या हौसले से
वही बिक जाते हैं कौड़ी के मोल

दुनिया बाजार है ,खरीदार हर किस्म के
बिकना कहां है और मोल क्या लगाना है
यह आदमी को खुद तय करना होता है
कमजोर दिल की औकात ही नहीं होती

आप सशक्त है यह विश्वास जरूरी है
गर्दिश के दौर से गुजरते हैं सभी
चाहे वक्त का हो या शौक का
इम्तिहान से तो गुजरना ही होता है

मोहन तिवारी

( मुंबई )

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