Yug par Kavita
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पाषाण युग

( Pashan yug) 

 

स्वर्ण युग बीता रजत युग वो ताम्र युग चले गए।
कलयुग में नर भांति भांति पग पग पे छले गए।

पत्थर दिल लिये लो आया अब पाषाण युग।
प्रस्तर ही पूजे जाते हैं शिलालेखों में बीते युग।

दुख दर्द भाव भावना पीर पराई जाने कौन।
वक्त खड़ा चुप्पी साधे रिश्ते नाते सारे मौन।

गगनचुंबी इमारतें खड़ी खिड़की दरवाजे हैं बंद।
आबादी तो खूब बढ़ी है दिलवाले मिलते हैं चंद।

बूत बना सा फिरे आदमी बेखुदी में होकर चूर।
सपनों की दुनिया में रह ख्यालों में होता मशहूर।

तीखी वाणी के तीर चलाए बैर बांध फेंके पत्थर।
शीशे के घर में रह आदमी औरों पे साधे प्रस्तर।

पाषाण सा देख रहा रिश्तो की बिगड़ी दिन दशा।
बस पैसों का बोलबाला है छाया है धन का नशा।

वादों प्रलोभन में डूबा नर जनचेतना सुप्त हुई।
आदर सत्कार बड़ों का संस्कृति कहां लुप्त हुई।

 

कवि : रमाकांत सोनी

नवलगढ़ जिला झुंझुनू

( राजस्थान )

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