“जैदि” की ग़ज़ले | Zaidi ki Ghazlein
अजनबी मुसाफिर थे तन्हा राहों में
प्यासी जमीं को, जीवन मिल गया,
बूंद गिरी पानी की बदन खिल गया।
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अजनबी मुसाफिर थे तन्हा राहों में,
चंद मुलाकात में कोई ले दिल गया।
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मुझको हाल ए दिल की ख़बर न थी,
न जाने कैसे पैदा कर मुश्किल गया।
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सब कुछ लुटा देख मैं हैरान हो गया,
देखा गिरेबाँ अपना कि मैं हिल गया।
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खुद पर यकींन न कर उस पर किया,
वही शख्स दिल को कर चोटिल गया।
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क्या खूब कहा है शायर “जैदि” तुमने,
डूबा सागर में,जो छोड़ साहिल गया।
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घन बरसे चहू ओर

घन बरसे चहू ओर,
वो रात न देखे भोर।
तन भिगोऐ गौरी का,
मन डोले पतंग की डोर।
सावन न देखे भादो,
बिजलियाँ करती शोर।
अब तो आ जा प्रियतम,
ऐसा फिर न आऐ दौर।
रोम-रोम तड़फ रहा है
उस पे चले न मेरा जोर।
बादल बन के बरस मुझ पे
तन का बचे न कोई छोर।
खिलने लगी है कली-कली,
गाये पपिहा,नाचे मन मोर।
दिल के अमीर
दिल के अमीर,सब के करीब होते है,
तन के अमीर, दिल के गरीब होते है।
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आजमा के देखो तो किसी गरीब को,
मुस्कुरा के कैसे हमारे हबीब होते है।
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फुटपातों की जिंदगी कुचल जाते है,
दौलत के गुरुर में ऐसे रक़ीब होते है।
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खुदा के भरोसे होती जिंदगी,सुना है,
फिर क्यों कहे, ख़राब नसीब होते है।
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कर्म के बदले धर्म जिनका अभिमान,
सच में लोग भी, ऐसे अजीब होते है।
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नफ़रत भूला कर करते जो मुहब्बत,
ऐसे इंसाँ “जैदि”, बड़े नजीब होते है।
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मायने:-
हबीब:- प्यारा
रकीब:-दुश्मन
नजीब:-महान
इंतजार में तेरे,वक्त लंबा गुजार दिया।
इंतज़ार में तेरे, वक्त लंबा गुजार दिया,
गर थी मुहब्बत तो क्यों इंतजार दिया।
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मुझको न रही खुद की ख़बर चाहत में,
तुम ने सनम हमें जख़्म बेशुमार दिया।
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मैं बै’रागन बनी प्यार में, तेरे इस तरहा,
तुमने मुझे थोड़ा सा न अधिकार दिया।
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दिन रात यादों में तेरी कैसे बिताई मैंने,
इक मुलाकात ने तेरी कर बिमार दिया।
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उफ्फ ये प्यार ये मुहब्बत कैसा नशा है,
जालिम ने जीते जी मुझको मार दिया।
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जुस्तजू में तेरी क्या न किया है “जैदि”,
था जो मेरा सब तुझ पर ही वार दिया।
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मुर्दों की जुबान में भी जान आ गई है
मुर्दों की जुबान में भी जान आ गई है,
खंजर वाले हाथों में कमान आ गई है।
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लगता है अब न कोई मरने वाला यहाँ,
मुर्दों में जिंदो की सी पहचान आ गई है।
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ज़मीर मर चुका था वे शोर मचा रहे है,
उजड़े गुलशन की जैसे शान आ गई है।
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कल जो कब्र खोदने में व्यस्त थे जनाब,
आज होंठों पर जैसे मुस्कान आ गई है।
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खिजाँ कल जो थी उनके खैरमकदम में,
आज फिजाँ उनके दरमियान आ गई है।
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खुश है शायर “जैदि” खुशी में शरीक है,
आज खुशियाँ बनके मेहमान आ गई है।
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कल जो सरकार में थे आज गुनहगार है
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कल जो सरकार में थे आज गुनहगार है,
कल जो गुनहगार थे वो आज सरकार है।
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बदलता किरदार फ़कत,कुर्सी के खातिर,
बस नही सजता,वो जनता का दरबार है।
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सता के सिहासन पर अब तक जो बैठा,
कहता सभी को, हम तुम्हारे मददगार है।
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जुबाँ की जंग में गिरे यहाँ सभी के ज़मीर,
गड़े मुर्दे उखाड़ रहे है ये कैसे समझदार है।
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गरीब पिस रहा है घुन की तरहा हर रोज,
मजलूम, बेबसों की सुनता नही पूकार है।
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मेहनतकश खूब बहाता खून ओ पसीना,
अफसोस ‘जैदि’ मिलती न सही पगार है।
बगावत है आंखो में
बगावत है आंखो में कोई बहम नही है,
तनिक झांक के देखो हरगिज़ नम नही।
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हाथ में कलम,बेसक जुबां मेरी तल्ख है,
हौसलों में दम है मगर, हाथ में बम नही।
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सच की राहों में चलना जुर्म है तो चलेंगे,
बेसक बेड़ियां पैर में डाले मुझे ग़म नही।
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अटल है इरादे तुफानों से जो टकराते है,
ख़रीदे कोई मेरे ज़मीर को ऐसा दम नही,
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हुनर हमने सीखा है पत्थरीली चट्टानों से,
आंखो से आकाश नापे हम भी कम नही।
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दुश्मन है गर ख़ौफज़दा तो हम क्या करे,
दिल में भय भर ले ऐसे “जैदि” हम नही।
खामोशियाँ देखो आज जश्न मनाने लगी है
( नज़्म )
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खामोशियाँ देखो आज जश्न मनाने लगी है,
कल तो जैसे मातम था ऐसे बताने लगी है।
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बैचेनियों ने शायद उन को सोने न दिया हो,
बेशर्म उनकी आंखे, खुशियाँ जताने लगी है।
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खफ़स में कैद चालाकियाँ,आजाद हो गई,
हमें लगा जैसे साथ है हमारे, बताने लगी है।
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हम भी मासूम निकले कहा जो मान लिया,
पता चला वो तो हमें,जिंदा जलाने लगी है।
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भला हो अस्थियों का जो जलने से बच गई,
वरना राख तो दुनियाँ कब से बनाने लगी है।
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उफ्फ क्या कसूर था,जो दुश्मन दुनियाँ बनी,
शुक्र है जिंदगी का ‘जैदि’ जो बचाने लगी है।
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मायने:-
खफ़स– पिंजरा
घाव भरते नही है
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नफ़रत में जलने वालों के घाव भरते नही है,
जर्जर हो जाऐ बदन पर हर्गिज़ मरते नही है।
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कतरा-कतरा बिखर जाऐ लहू का, जुनून में,
दुश्मन ताकतवर हो पर मौत से डरते नही है।
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बुलंद हो हौसले मंजिल भी इंतज़ार करती है,
घर मजबूत इरादों से बने वो बिखरते नही है।
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डगमाऐ कदम अगर, सफर से पहले समझो,
हरगिज़ वे इंसान मंज़िल फ़तह करते नही है।
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लगन ओ मेहनत का जोश दौड़ता हो रगो में,
जंग ओ मैदान में कभी सन्नाटे पसरते नही है।
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बेशख खुशी में शुमार न हो “जैदि” मगर तुम,
मुश्किलों में खड़े हो साथ तो अख़रते नही है।
ठुकरा के पैदाइश
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ठुकरा के पैदाइश अपनी इंसान भाग गया,
सोचा सारे जहाँ ने प्रभू लगन में जाग गया।
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वो सिरफिरा खुद को खुदा समझ कर,सुनो,
दामन पे लगे दाग को जैसे कर बेदाग गया।
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रोते बिलखते छोड़ मात-पिता को खुदगर्ज़,
तन मन धोने दरिया संगम राज प्रयाग गया।
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चतुर चलाक समझ वो इतराने लगा है ऐसे,
समंद्र से जैसे चोंच भर मोती ले काग गया।
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ज़हरीले शब्द बाण चला कर ऐसे चल पड़ा,
जैसे अपनो को डस अस्तीन का नाग गया।
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होती है हर घर तूं तूं में में इतने में छोड गया
यूंही बसे घर में “जैदि” लगा जैसे आग गया।
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मेरे घर की, दीवारों के कान नही है
मेरे घर की, दीवारों के कान नही है
ऐसा भी नही कि मेरे मकान नही है।
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हां हम बात सुनते फ़कत अपनो की,
ओरों के सुने राज ऐसे इंसान नही है।
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है आशियाने बहुत चारों ओर हमारे,
तुम देखो यहां कोई शमशान नही है।
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मुहब्बत है जहाँ, जी भर कर रहते है,
ठहरे ना कदम, जहाँ सम्मान नही है।
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होती अकसर, आंखे दो-चार हमारी,
खामोश है मत समझे जुबान नही है।
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कोई लाख हसरत रखे हमे मिटाने की,
होते मगर “जैदि”,पूरे अरमान नही है।
तन्हा जिंदगी अब जीया न जाती है
जी भर कर मुझ को अब सोने दो,
बांहों में तेरी मुझको अब खोने दो।
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कब से बेकरार हूँ तुमसे मिलने को ,
दो जिस्म एक जाँ मुझको होने दो।
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है जो नफरत दिल में तेरे छोड़ो भी,
इस दिल में बीज प्यार का बोने दो।
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तन्हा जिंदगी अब जीया न जाती है,
अब कंधो को बोझ तुम्हारा ढ़ोने दो।
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रुठ कर मिले हमें जो जख़्म तुम से
धोती हूँ उन जख़्मों को तो धोने दो।
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इल्तिजा है शायर “जैदि” इक तुमसे,
मुझ को फ़कत अब तुम्हारी होने दो।
पता नही चलता
कब गिर जाऐ आदमी ज़मीर से, पता नही चलता,
मौत कब कैसे आ जाऐ समीर से पता नही चलता।
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दुनिया जालिम है कब मदद का मेहनताना मांग ले,
क़त्ल किस का होगा, शमशीर से पता नही चलता।
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हार होगी या जीत ये सब रणभूमि ही बताऐगी हमें,
राजन बेताज कब होगा वज़ीर से पता नही चलता।
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पूछ के देखो बताऐगा ग़रीब,कहाँ महल अमीर का,
है घर किधर ग़रीब का ये अमीर से पता नही चलता
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हैसियत कपड़ो से देखना, ये गलतफ़हमी है हमारी,
कितनी है दौलत पास, फ़कीर से पता नही चलता।
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कै़द है “जैदि” क़फ़स में कब तलक रहेगा पता नही,
हौसलों में कितनी जान जंजीर से पता नही चलता।
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मायनें:-
समीर: -हवा
शमशीर: -तलवार
कफ़स: -पिजंरा
मुझको इतना भी न सता ऐ जिंदगी
मुझ को इतना भी न सता ऐ जिंदगी,
क्या ख़ता है मेरी मुझे बता ऐ जिंदगी।
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क्या बिगाड़ा हम ने तेरा, बता दे ज़रा,
तलब है मिलने की दे पता ऐ जिंदगी।
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गुज़र रहे शबो रोज़,दौर ए मुसीबत में,
दी है खुशियाँ गर तो जता ऐ जिंदगी।
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ग़म ए अश्क तुमने पीए है कभी बता,
हुई तो तुझ से भी है ख़ता ऐ जिंदगी।
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रुला के हंसाती कभी हंसा के रुलाती,
ज़रा बता तेरा है क्या मता ऐ जिंदगी।
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ठहर के पूछ “जैदि” से तुझसे कितना,
है परेशाँ, हर ज़ईफ़ो-फ़ता ऐ जिंदगी।
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मायने:-
सता:-कष्ट
शबो-रोज़:-दिन और रात
ग़म ए अश्क:-ग़म के आंसू
ख़ता:-भूल
मता :-विचार
ज़ईफ़ो-फ़ता:-बूढा और जवान आदमी
तुझ को न पाया होता
( Tujhko na paya hota )
बेकार थी हयात हमारी तुझ को न पाया होता,
गर तुम न मिलती मुझको तो वक्त जाया होता।
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बेख़बर सा था अनजान सी गलियों से तुम्हारी,
फंसता जाल में न तुम्हारे, गर न सताया होता।
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पगली रातों को तुमने,खुद को यूँ क्यों जगाया,
मुहब्बत थी अगर मुझसे तो जरा बताया होता।
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ख़्यालों में सताना तेरा मुझ को अच्छा न लगा,
दर्द ए दिल गर था अपना समझ सुनाया होता।
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इक पल मुस्कुरा के मुझको देखा होता जानम,
पल पल साथ तुम्हारे मेरी रुंह का साया होता।
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उल्फ़त का ये सफ़र मुश्किल से “जैदि”कटा है,
आसान सफ़र कटता, अगर दिल लगाया होता।
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हो जाता हूँ
आजकल मैं, बिन तुम्हारे अख़बार हो जाता हूँ,
पूछता है कोई बारे में तेरे ख़बरदार हो जाता हूँ।
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रुसवा जब भी करे हम को महफिल से अपनी,
सिर झुका कर शर्मशार सा हरबार हो जाता हूँ।
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लाख वो हम को धिक्कारे है जिंदगी में अपनी,
बेखुदी है कि मेरी मैं फिर मददगार हो जाता हूँ।
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बदलते है लिबास मगर मन की न बदबू जाती,
देखता हूँ ऐसे लोगों को मैं खूंखार हो जाता हूँ।
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है ख़बर गुलशन में गुल तो है मगर महक नही,
गुजरता जानिब से, जब मैं बेज़ार हो जाता हूँ।
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हसरते बहुत है दिल में थोड़ी सी गुप्तगू कर ले,
ये जुबां तल्ख है “जैदि” जरा बेदार हो जाता हूँ।
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कबीर
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कबीरा तेरी लेखनी,चले ऐसे जैसे तलवार,
पाखंडी भी कहता मेरे पाखंड को भी मार।
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जाके हिय सदियों बसे नफरत भरे विकार,
चतुर,चलाक, अभिमानी माने कभी न हार।
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जात पात के जाल में, डाले संग-ओ-ख़ार,
धर्म कर्म की डाल बेड़ियाँ, करे हरदम वार।
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कबीरा तेरी ऐसी जननी खूब लुटायो प्यार,
जो तुझको जाने तुझे वही बनाऐ हथियार।
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अजीब निराली रीत पुरानी है देखी बारंबार,
कोई न माने वाणी तेरी वे फेरे माला हजार।
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क्या कहूँ कबीरा, है तेरी महीमा अपरम्पार,
इक बार फिर धरा पे आ “जैदि” करे पुकार।
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याद कैसे करे
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हादसे,चेहरे के मिटा निशान देते है
याद कैसे करे मिटा पहचान देते है।
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अजनबी लोग आते है, हाल पूछने,
वो नही आते जो कहते जान देते है।
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मौत पर मेरी शोर मचाने आऐगें वो,
ज़िस्त में जो खड़ा कर तुफान देते है।
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अब भरोसा ये किस पे करे बताओ,
लोग कैसे, अपना डुबो इमान देते है।
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पास में तुम रखा करो पता, अपना,
खोज लेगें जरुर हमे जो ध्यान देते है।
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“जैदि” देखो जरा यहाँ है कौन कैसे,
लोग जाते है बदल,जो जुबान देते है।
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दुःशासन
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लो लुटने लगी है आबरू,
नये धृतराष्ट्र के शासन में।
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लगी है आग चारो ओर,
प्रजा त्रस्त है कुशासन में।
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नारी निर्वस्त्र किऐ जा रही है,
हाकिम बैठा, मौन मुद्रासन में।
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बदल गयी है देखो राजसभा,
बदले सब किरदार प्रशासन में।
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जालिम जिस्म नौच रहे है देखो,
कोई ख़ौफ नही है दुःशासन में।
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तुम कहाँ हो कृष्ण,आ कर देखो?,
लज्जित नारी बैठी मरणासन्न में।
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आज नही तो कल
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झूठे और मक्कारों को तो बेनकाब होना था,
आज नही तो कल उदय आफ़ताब होना था।
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अंधेरा कब तलक सच दबा के रखता दोस्त,
बर्फ कब तक जमीं रहे, उसे तो आब होना था
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सच परेशाँ हो सकता है मगर, मर नही सकता
रक़ीब के हर सवाल का, उसे जवाब होना था
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दुश्मन की चालो का अंदाज़ नही था उस को,
मगर हाँ, सच का समय थोड़ा खराब होना था
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घेर लिया था चारों ओर बच कर कहीं न जाऐ,
आखिर सच की झोली में ये ख़िताब होना था
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कोई न काबिल था इस जंग-ए-मैदां में “जैदि”,
कैसे हार जाता वो, उसे तो लाजवाब होना था
हम हमारा क्या
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मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है,
रखते तो है पाँव जमीं पर, मगर डरते है।
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रहमोकरम पर चलते है हम हमारा क्या,
रख दे हाथ सिर पर कोई तब निखरते है।
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हताश हमारी हयात, किस पर जोर चले,
अछूत हो जाती चीज, जहाँ हाथ धरते है।
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उठा कर सिर चल पड़े तो शामत हमारी,
न जाने क्या दोष क्यूँ नज़र में अखरते है।
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अमानुष बना के छोड़ा जमाने ने हम को,
कि शब-ओ-रोज घुट-घुट के हम मरते है।
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सिसकती है जिंदगी, इतना जुल्म न करो,
मज़लूम “जैदि” देख तुमको आहें भरते है।
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मायने:-
हताश:-निराश
हयात:-जिंदगी
शामत:-विपत्ति
शबे-रोज:-रात और दिन
मज़लूम:-अत्याचार से पीड़ित
हताश हमारी हयात
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मर्जी से अपनी हम कहाँ सफर करते है,
रखते तो है पाँव जमीं पर, मगर डरते है।
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रहमोकरम पर चलते है हम हमारा क्या,
रख दे हाथ सिर पर कोई तब निखरते है।
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हताश हमारी हयात, किस पर जोर चले,
अछूत हो जाती चीज, जहाँ हाथ धरते है।
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उठा कर सिर चल पड़े तो शामत हमारी,
न जाने क्या दोष क्यूँ नज़र में अखरते है।
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अमानुष बना के छोड़ा जमाने ने हम को,
कि शब-ओ-रोज घुट-घुट के हम मरते है।
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सिसकती है जिंदगी, इतना जुल्म न करो,
मज़लूम “जैदि” देख तुमको आहें भरते है।
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मायने:-
हताश:-निराश
हयात:-जिंदगी
शामत:-विपत्ति
शबे-रोज:-रात और दिन
मज़लूम:-अत्याचार से पीड़ित
राजन
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इतना भी किस लिऐ तुम्हारा ये ग़रुर राजन,
तख़्त-ओ-ताज से गिराऐगा ये ज़रुर राजन।
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मज़लूमो को अब ओर न सता बस भी कर,
दिल की बस्तियों से इतना न जा दूर राजन।
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लहूलुहान है सड़कें देख गरीब के छालो से,
क्या लाशे कुचलना ही है, तेरा सरुर राजन।
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चमक चेहरे की चीख-चीख के कहे तुम्हारी,
मुफ़लिसी को रोंद के पाया है ये नूर राजन।
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तेरी चौखट पर सिर सब का,बस झुका रहे,
ये मशां जो फ़कत तुम्हारी है मग़रूर राजन।
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सुन इतना भी जुल्म न कर तूं “जैदि” पे कि,
ख़त्म हो जाऐ ये तुम्हारी छवि पुरनूर राजन।
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शायर:-“जैदि”
डॉ.एल.सी.जैदिया “जैदि”
बीकानेर।
मायने:-
इता: इतना
सरुर: नशां
मुफ़लिसी : गरीबी
मग़रूर: अभिमानी
पुरनूर: चमकदार
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